जानिए नालंदा विश्वविद्यालय और उसके स्वर्णिम अतीत के बारे में

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नालंदा विश्वविद्यालय के बारे में तो शायद सभी लोगों ने सुना ही होगा, इस विश्वविद्यालय का नाम भारत में ही नहीं  बल्कि पूरे विश्व में काफी प्रसिद्ध है। आज से करीब 1500 साल पहले ये विश्वविद्यालय पूरी दुनिया के लिए उच्च शिक्षा का सिरमौर माना जाता था, जहां भारत के साथ-साथ विदेशों से भी छात्र पढ़ने आते थे। आईये आज इस खबर में जानते हैं नालंदा विश्वविद्यालय के स्वर्णिम अतीत के बारे में कुछ जरूरी तथ्य…

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नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना

इस नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना गुप्त शासक कुमार गुप्त प्रथम ने 450-470 ई. वी. के बीच के समय में की थी। अत्यंत सुनियोजित ढंग से एक विस्तृत क्षेत्र में बना ये उस समय का पहला ऐसा विश्वविद्यालय था जहां लोग देश और विदेश दोनों जगह से पढ़ने आते थे। आकड़ों की अगर बात करें तो उस समय 12000 छात्र थे और करीब 2000 शिक्षक यहां शिक्षा प्रदान करते थे। यह एक पूर्णतः आवासीय विद्यालय के रूप में जाना जाता था। नौवीं से बारहवीं शताब्दी तक इस विश्वविद्यालय की अन्तरराष्ट्रीय ख्याति रही। इस विश्वविद्यालय की खास बात तो ये है कि गुप्तवंश के दुनिया से जाने के बाद भी सभी शासक वंशों ने इसकी समृद्धि में अपना पूरा योगदान दिया।

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लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है की विद्या के इस मंदिर को सं ११९९ ई में भारी हिंसा का शिकार होना पड़ा और देखते ही देखते यह विश्व विख्यात विद्या स्थली खण्डार में बदल गयी। इस विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी को भी नष्ट कर दिया गया था। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने एक बार यहां पर खुदाई भी की थी जिसके बाद यहां से कुछ ईंट से निर्मित 6 मंदिर और ग्यारह विहारों की श्रृंखला बरामद हुई थी। जिसका विस्तार एक वर्ग किमी से कई ज्यादा अधिक है। इनके अलावा खुदाई में बुद्ध की मूर्तियां, सिक्के, हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियां, मृदभांड, ताम्रपत्र, भित्तिचित्र आदि भी प्राप्त हुए, जो इस विश्वविद्यालय के ठीक सामने के नालंदा संग्रहालय में रखे हुए हैं। ध्यान देने वाली बात यह है की यह संग्रहालय हर शुक्रवार को बंद रहता है।

लेखक – रोहित सिंह पटवाल

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